कैसे पड़ा इनका नाम वाल्मीकि (valmiki) और अलग-अलग युगों में इनका वर्णन
एक बार ध्यान में बैठे हुए वरुण-पुत्र के शरीर को दीमकों ने अपना घर बनाकर ढक लिया था। साधना पूरी करके जब यह दीमकों के घर, जिसे वाल्मीकि कहते हैं, से बाहर निकले तो लोग इन्हें वाल्मीकि कहने लगे।
वाल्मीकि रामायण में स्वयं वाल्मीकि कहते हैं कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ , नारद , पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। बताया जाता है कि प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी के पुत्र है । यह भी माना जाता है कि वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम ‘अग्निशर्मा’ एवं ‘रत्नाकर’ थे।
किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया। जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म करता था।
आदिकवि वाल्मीकि जी के जन्म होने का कहीं भी कोई खास प्रमाण नहीं मिलता, हाँ मिथक कहानियाँ जरूर मिलती है। मगर जब इतिहास में ढूंढें तो वाल्मीकि को ईश्वर रूप में ही माना जा सकता है क्योंकि, वाल्मीकि का उल्लेख तीनों युगों में मिलता है। सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि जी का उल्लेख मिलता है वो भी वाल्मीकि नाम से ही। रामचरित्र मानस के अनुसार जब राम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो वो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत् प्रणाम करने के लिए जमीन पर लेट गए थे और उनके मुख से निकला था-
तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा |
विश्व बिद्र जिमि तुमरे हाथा ||
अर्थात् –आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।महाभारत काल में भी वाल्मीकि जी का वर्णन मिलता है | जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो महारानी द्रौपदी यज्ञ रखती है,जो कि सफल नहीं हो पाता । तो श्री कृष्ण के कहने पर कि यज्ञ में सभी मुनियों के मुनि अर्थात वाल्मीकि जी को नहीं बुलाया गया इसलिए यज्ञ सम्पूर्ण नहीं हो पा रहा तो द्रौपदी खुद वाल्मीकि आश्रम जाती हैं और उनसे यज्ञ में आने की विनती करती हैं । जब वाल्मीकि वहाँ आते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण होता है। इस घटना को कबीर जी ने भी स्पष्ट किया है |
सुपच रूप धार सतगुरु जी आए |
पांडों के यज्ञ में शंख बजाए ||
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