महर्षि वाल्मीकि (Valmiki) एवं उनसे जुड़े रोचक तथ्य
एक बार महर्षि वाल्मीकि अपने शिष्यों के साथ तमसा नदी तट पर नहाने जाते हैं । वे अपने वस्त्रादि अपने प्रिय शिष्य भरद्वाज को सौंप पेड़-पौधों से हरे-भरे निकट के वन में भ्रमण के लिए चले जाते हैं । उस वन में एक स्थान पर उन की नज़र क्रौंच पक्षियों के रतिक्रिया में लिप्त एक असावधान जोड़े पर पड़ती है । कुछ ही पलों बाद वे देखते हैं कि उस जोड़े का एक सदस्य चीखते और पंख फड़फड़ाते हुए धरती पर गिर पड़ता है और दूसरा उसके शोक में चीत्कार मचाते हुए एक शाखा से दूसरी शाखा पर भटकने लगता है । उस समय अनायास ही उक्त निंदात्मक वचन उनके मुख से निकल पड़ते हैं ।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥
अर्थात्– अरे बहेलिये (निषाद), जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी | तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षियों के जोड़े में से कामभावना से ग्रस्त एक का वध कर डाला है (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) |
यह श्लोक मानव इतिहास की महागाथा “रामायण” का आधार बना | यह स्रष्टि का पहला काव्य है | यह मानव इतिहास की वह पहली रचना है, जिसने बताया कि मानव का जीवन चरित्र कैसा हो | वाल्मीकि के मुख से निकला यह श्राप विश्व साहित्य की प्रथम कविता मानी गयी । अर्थात अन्याय के विरुद्ध, निरीह के पक्ष में, सत्य की रक्षा में बोला गया शब्द- शब्द कविता है । इस दृष्टि से अखिल विश्व के प्रथम कवि हुए जिन्हें हम महर्षि आदिकवि वाल्मीकि के नाम से जानते हैं | महर्षि वाल्मीकि का जन्म दिवस आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है।
आगे की कथा यह है कि तमसा नदी पर स्नान आदि कर्म संपन्न करने के बाद महर्षि आश्रम लौट आये और आसनस्थ होकर वे विचारों में खो गये कि उनके मुख से वे शब्द क्यों निकले होंगे । वे सोचने लगे कि क्यों उनके मुख से बहेलिए के प्रति ऐसे शाप-वचन निकले । इन्हीं विचारों में खोये हुए वे नदी किनारे लौट आये । घटना का वर्णन उन्होंने अपने शिष्य भरद्वाज से किया और उसे बताया कि उनके मुख से अनायास एक छंद-निबद्ध वाक्य निकला जो आठ-आठ अक्षरों के चार चरणों, कुल बत्तीस अक्षरों, से बना है । इस छंद को उन्होंने ‘श्लोक’ नाम दिया । वे बोले “श्लोक” नामक यह छंद काव्य-रचना का आधार बनना चाहिए; यह यूँ ही मेरे मुख से नहीं निकले हैं ।”
तभी सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने उन्हें दर्शन दिये और देवर्षि नारद द्वारा उन्हें सुनाये गये रामकथा का स्मरण कराया । उन्होंने महर्षि को प्रेरित किया कि वे पुरुषोत्तम राम की कथा को काव्यबद्ध करें । रामायण के इन दो श्लोकों में इस प्रेरणा का उल्लेख हैः
रामस्य चरितं कृत्स्नं कुरु त्वमृषिसत्तम ।
धर्मात्मनो भगवतो लोके रामस्य धीमतः ।।
वृत्तं कथय धीरस्य यथा ते नारदाच्छ्रुतम् ।
रहस्यं च प्रकाशं च यद् वृत्तं तस्य धीमतः ।।
(रामायण, बालकाण्ड, द्वितीय सर्ग, श्लोक ३२ एवं ३३)
ऋषि-सत्तम, त्वम् रामस्य कृत्स्नं चरितं कुरु, कस्य |
लोके धर्मात्मनः धीमतः भगवतः रामस्य ||
अर्थात्– हे ऋषिश्रेष्ठ, तुम श्रीराम के समस्त चरित्र का काव्यात्मक वर्णन करो, उन भगवान् राम का जो धर्मात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, बुद्धिमान् हैं । देवर्षि नारद के मुख से जैसा सुना है वैसा उस धीर पुरुष के जीवनवृत्त का बखान करो; उस बुद्धिमान् पुरुष के साथ प्रकाशित (ज्ञात रूप में) तथा अप्रकाशित (अज्ञात रूप में) जो कुछ घटित हुआ उसकी चर्चा करो । सृष्टिकर्ता ने उन्हें आश्वस्त किया कि अंतर्दृष्टि के द्वारा उन्हें श्रीराम के जीवन की घटनाओं का ज्ञान हो जायेगा, चाहे उनकी चर्चा आम जन में होती आ रही हो या नहीं | तब आरंभ हुई श्लोकों में निबद्ध होकर रामायण नामक महाग्रंथ की रचना । देवर्षि नारद द्वारा कथित बातें, सृष्टिकर्ता ब्रह्मा की प्रेरणा, और रामकथा की पृष्ठभूमि आदि का उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने स्वयं अपने ग्रंथ के आरंभ में किया है । पूरा ग्रंथ ‘श्लोक’ नामक छंदों में लिखित है, जिसकी भाषा अत्यंत सरल है, और श्लोकों को समझना संस्कृत के सामान्य ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए भी संभव है ।
रामकथा वस्तुतः पौराणिक है । इसलिए रामायण में जो कुछ वर्णित है वह अक्षरशः सही है, क्या इस बारे में कुछ भी कह पाना संभव नहीं है ? मुनि नारद कौन थे ? क्या ऋषि वाल्मीकि को ब्रह्मा ने वास्तव में साक्षात् दर्शन दिये या ऋषि को स्वप्न में उनके दर्शन हुए और उसी में उन्हें काव्यरचना की प्रेरणा प्राप्त हुई ? ऐसे प्रश्न मन में उठ सकते हैं । ऐसा लगता है कि क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक के हताहत होने से श्रीराम पर केंद्रित काव्यरचना का विचार मन में आया होगा । वस्तुतः उस घटना को राम-सीता के संयोग-वियोग की कहानी के एक प्रतीक के रूप में लिया जा सकता है ।
आरंभ में ‘मा निषाद …’ का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि आठ-आठ अक्षर वाले चार चरणों की यह विशेष पद्य-रचना को आदिकवि वाल्मीकि ने ‘श्लोक’ की संज्ञा दी थी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि संस्कृत-साहित्य में पद्य-रचना छंदों में रहती है और ‘श्लोक’ विभिन्न प्रकार के छंदों में से एक है (जैसे हिंदी में दोहा, सोरठा, चौपाई, कुंडली आदि होते हैं) । यानी हर छंद को श्लोक नहीं कहा जा सकता । संयोग से पद्यात्मक संस्कृत रचनाओं में ‘श्लोकों’ का ही प्रयोग अधिकतर देखने को मिलता है । महाभारत के प्रायः सभी छंद श्लोक ही हैं । पूरी भगवद्गीता श्लोकों में ही है । मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, पंचतंत्र, हितोपदेश, चाणक्यनीतिदर्पण, आदि में भी श्लोक ही प्रमुखतया विद्यमान हैं|
अपने महाकाव्य “रामायण” में महर्षि वाल्मीकि ने अनेक घटनाओं के घटने के समय सूर्य, चंद्र तथा अन्य नक्षत्र की स्थितियों का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि वे ज्योतिष विद्या एवं खगोल विद्या के भी प्रकाण्ड पण्डित थे।
अपने वनवास काल के मध्य “राम” वाल्मीक ऋषि के आश्रम में भी गये थे। महर्षि वाल्मीकि वैदिक काल के महान ऋषियों में माने जाते हैं। आप संस्कृत भाषा के आदि कवि और आदि काव्य ‘रामायण’ के रचयिता के रूप में सुप्रसिद्ध हैं। महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र वरुण [आदित्य] से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी और भाई भृगु थे। वरुण का एक नाम प्रचेत भी है, इसलिए इन्हें प्राचेतस् नाम से उल्लेखित किया जाता है। उपनिषद के विवरण के अनुसार यह भी अपने भाई भृगु की भांति परम ज्ञानी थे। मनुस्मृति के अनुसार प्रचेता, वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि भी इन्हीं के भाई थे।