ॐ (ओउम्) का शास्त्रों द्वारा वर्णन एवं महत्व
ॐ (ओउम्) एक पवित्र नाम है जो किसी धर्म, मजहब और सम्प्रदाय से बंधा हुआ नहीं है बल्कि यह तो सभी मुख्य संस्क्रतियों का एक प्रमुख आधार है | यश तो परमब्रम्ह की शक्ति और ईश्वर का प्रतीक है | अगर हम ‘ओउम्’ शब्द का संधि विच्छेद करें तो हमें अ+उ+म वर्ण प्राप्त होते है | इसमें ‘अ’ वर्ण ‘सृष्टि’ को दर्शाता है, ‘उ’ वर्ण ‘स्थिति’ को और ‘म’ वर्ण से ‘ले’ का बोध होता है | ओउम् शब्द से तीनों देवता ब्रम्हा, विष्णु और महेश का बोध होता है इसलिए इसका उच्चारण करने से इन तीनों देवता का आवाहन होता है |
‘ओउम्’ के तिन अक्षर तीनों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद) का भी प्रतीक माना जाता है | सत्य तो यह है कि ‘ओउम्’ ही सारे धर्मो और शास्त्रों का स्त्रोत माना जाता है |
“कठोपनिषद्” के अनुसार यमराज नचिकेता से कहते है, जो श्लोक के माध्यम से बताया गया है –
सर्वे वेद यत् पद्मामनन्ति तपंसि सर्वाणि च यद वदन्ति |
यदिच्छन्तो ब्र्म्हाचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीभ्योमित्येत्त् ||
इसका अर्थ यह है कि सभी वेदों ने जिस पद की महिमा का गुणगान किया है, तपस्वियों ने ताप कर के जिस शब्द का उच्चारण किया है उसी महाशक्ति को साररूप में मै तुम्हे समझाता हूँ | हे नचिकेता ! समस्त वेदों का सार, तपस्वियों का तप और ज्ञानियों का ज्ञान सिर्फ ॐ (ओउम्) में ही निहित है |
“श्रीमद्भगवद् गीता” में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते है –
ओमित्येकाक्षरं ब्रम्हा व्याहर न्यामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजनदेहं स याति परमां गतिम् ||
इसका अर्थ यह है कि मन के द्वारा प्राण को मस्तक पर स्थापित करके, योगावस्था में स्थित हो कर जो पुरुष अक्षर रूप ब्रम्हा ॐ का उच्चारण करता है और इसके अर्थ स्वरूप मुझ निर्गुण ब्रम्हा का चिंतन-मनन करते हुए प्राण त्याग करता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है |
“कठोपनिषद्” में ॐ (ओउम्) की स्पष्ट व्याख्या करते हुए बताया गया है कि ॐ ही परम ब्रम्हा है | इसी अक्षर का ज्ञान प्राप्त कर मनुष्य जो चाहता है वो पा लेता है | यही अति उत्तम एवं आलंबन है और यही अक्षर एकमात्र सबका अंतिम आश्रय है | इस आलंबन को भली प्रकार समझ कर साधक ब्रम्हालोक में महिमा-मंडित होते है |